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शंकराचार्य प्रारंभिक जीवन
महान दार्शनिक शंकराचार्य का जन्म 507 ईसा पूर्व केरल के एर्नाकुलम जिले के काल्टी गांव में हुआ था | इनके पिता का नाम शिव गुरु तथा माता का नाम आर्याम्बा था | उनके पिता वेद शास्त्र के प्रखंड विद्वान थे इनका पूरा परिवार पांडित्य के लिए विख्यात था |
शंकराचार्य के जन्म के पहले ही ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक महान तेजस्वी ज्ञानी एवं भाग्यशाली होगा यह अपने ज्ञान के प्रकाश से पूरे विश्व को प्रकाशित करेगा ज्योतिष की यह बात सुनकर इनके माता-पिता अत्यंत प्रसन्न हुए | यह मात्र जब 3 वर्ष के थे तभी इनके पिता का देहांत हो गया उनका पालन-पोषण इनकी माता ने किया था यह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे उनके बचपन का नाम शंकर था |
आदि शंकराचार्य की शिक्षा
बचपन में इनकी माता इन्हें घर पर ही उपनिषदों ग्रंथों की शिक्षा देती थी बाद में आगे की पढ़ाई के लिए गुरुकुल चले गए शंकर की स्मरण शक्ति बहुत ही तेज थी जो बात एक बार पढ़ लेते थे उसे कभी नहीं भूलते थे | गुरुकुल के गुरु शिक्षक इनकी इस प्रतिभा को देखकर बहुत ही हैरान थे अपने कुशाग्र बुद्धि से अत्यंत कम समय में यह उपनिषद वेदो ग्रंथों में पारंगत हो गए अब इनकी गणना उच्च कोटि के विद्वानों में किया जाने लगा |
विद्या अध्ययन करने के बाद शंकर अपने घर वापस लौट आए घर पर रहकर वह दूसरे बच्चों को पढ़ाते थे साथ ही साथ अपनी माता की सेवा करते थे जो कोई भी एक बार उनसे बात कर लेता था वह बहुत ही प्रभावित होता था देखते ही देखते इनका यश चारों ओर फैल गया हर कोई उनसे मिलना चाहता था |
राजपुरोहित शंकराचार्य
शंकराचार्य के ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी थी धीरे-धीरे या खबर केरल के राजा के पास भी पहुंची राजा शंकराचार्य को अपना राजपुरोहित बनाना चाहते थे | उन्होंने राजपुरोहित बनने से मना कर दिया | राजा ने भेंट स्वरूप इनको 1000 अशरफिया दिया और इनको तीन स्वरचित नाटक दिखाएं शंकराचार्य ने नाटक की प्रशंसा की परंतु राजा द्वारा दी गई अशरफिया नहीं ली कहा जाता है कि राजा उनसे इतना प्रभावित हुए की राजा स्वयं शंकराचार्य के भक्त बन गए |
शंकराचार्य के सन्यास ग्रहण की कहानी
वह बचपन में ही वेद शास्त्र धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था वह बचपन से ही सन्यासी बनना चाहते थे परंतु उनकी मां नहीं चाहती थी कि वह सन्यासी बने | अतः उन्होंने शंकर को सन्यास ग्रहण करने की अनुमति नहीं दिया |
एक बार की बात है शंकराचार्य और उनकी मां दोनों ही नदी की तेज जल धारा से गिरे हुए थे शंकर को पानी में डूबता देख कर मां इनको पानी के बाहर निकलने की कोशिश करने के लिए कह रही थी | परंतु शंकर ने अपनी मां से कहा यदि आप मुझे सन्यास ग्रहण करने की अनुमति देंगे तभी मैं इस पानी से बाहर निकलने की कोशिश करूंगा नहीं तो इसी पानी में डूब कर मर जाऊंगा |
शंकर ने अपने हाथ पैर ढीले कर दिया जिससे कि वह पानी में डूबने लगा | यह देख कर माता भयभीत हो गई और उन्हें सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दिया तब शंकर ने पूरी कोशिश करके खुद को और अपनी माता को बचा लिया |
शंकराचार्य सन्यासी
माता से सन्यास ग्रहण की अनुमति लेकर वह अपने घर से चल दिए |माता से विदा लेते समय उनकी मां ने उनसे यह वचन लिया कि उनका अंतिम संस्कार शंकर अपने हाथों से करेंगे हालांकि उस समय यह परंपरा थी सन्यासी लोग किसी का भी अंतिम संस्कार नहीं करते हैं यह बात जानते हुए भी शंकराचार्य ने हां बोल दिया और वह चले गए वह नर्मदा के तट पर गुरु गोविंदनाथ के पास पहुंचे | उस समय गुरु गोविंदनाथ अपने तपस्या में लीन थे | समाधि भंग होने पर शंकर ने गोविंदनाथ को प्रणाम किया और उनसे सन्यास ग्रहण कर विद्या देने की इच्छा जाहिर की |
गुरु गोविंदनाथ ने शंकर से उनका परिचय पूछा वह शंकर से बहुत प्रभावित हुए और उनको शिक्षा देने के लिए तैयार हो गए हैं | वहां पर कुछ दिन रहकर शिक्षा ग्रहण किया शिक्षा समाप्त होने के बाद गुरु की अनुमति लेकर गुरु के सुझाव पर वह काशी के लिए रवाना हो गये |
काशी में शंकराचार्य
काशी में आकर वह अत्यंत प्रसन्न हुए वह प्रतिदिन गंगा तट पर स्नान के लिए जाते थे एक दिन उनके मार्ग में एक चांडाल मिला यह देखकर शंकराचार्य क्रोधित हो गए और उन्होंने चांडाल को अपने मार्ग से हट जाने के लिए कहा ऐसा सुनकर उस चांडाल ने बड़े ही विनम्र भाव से अत्यंत शालीनता के साथ उत्तर दिया महाराज आपकी नजर में चांडाल किसे कहते हैं? इस भौतिक शरीर को या आत्मा को |
शरीर को तो यह शरीर नश्वर है अन्न जल से बना जो शरीर आपका है वही मेरा भी है | आत्मा को तो शरीर के भीतर जो आत्मा है वह एक है क्योंकि ब्रह्म तो केवल एक ही होता है शंकराचार्य को उनकी बातों में सत्यता प्रतीत हुआ और उनको अपनी गलती का एहसास हो गया था अतः शंकराचार्य उसे धन्यवाद कहा और चले गए |
शंकराचार्य का शास्त्रार्थ प्रतिस्पर्धा
काशी में रहते हुए एक दिन काशी के प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ | यह शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती दोनों अत्यंत विद्वान थे | उन दोनों के साथ बारी-बारी से शास्त्रार्थ हुए एक बार शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी से शंकराचार्य हार गए थे बाद में वह जीत गए थे | आगे चलकर मंडल मिश्र और उनकी पत्नी दोनों ही शंकराचार्य के शिष्य बने इसके बाद उन्होंने भारत के कोने कोने में भ्रमण किया |
सन्यासी होकर भी माता का अंतिम संस्कार शंकराचार्य ने क्यों किया ?
उस समय की परंपरा थी कि सन्यासी कभी भी अंतिम संस्कार नहीं करते हैं परंतु माता को दिए गए वचन की पूर्ति के लिए शंकराचार्य उनका अंतिम संस्कार किया |
सन्यास ग्रहण करने के पश्चात भारत भ्रमण में लगे हुए थे तभी उनको अपने माता के अस्वस्थ होने का समाचार मिलता है| अतः वह अपनी माता के पास आ जाते हैं माता कितने वर्षों के बाद अपने पुत्र शंकर को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए ? उनकी माता की इच्छा थी कि वह भगवान विष्णु के दर्शन करें अतः ऐसा कहा जाता है कि शंकराचार्य ने अपनी माता को भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन कराएं और लोगों के खिलाफ जाकर मृत्यु के पश्चात अपने माता का अंतिम संस्कार भी किए |
धर्म ज्ञानी शंकराचार्य
धर्म की स्थापना के लिए वह पूरे भारत में भ्रमण किया और और अपने ज्ञान से लोगों को जागृत करने का प्रयास किया | धर्म के क्षेत्र में किया गया उनका कार्य अत्यंत ही प्रशंसनीय है लोगों को एकता के एक सूत्र में बांधने के लिए उन्होंने चारों मठों की स्थापना की इन मठों के नाम कुछ इस प्रकार है |
बद्रीनाथ
द्वारिका नाथ
केदारनाथ
रामेश्वरम
के अलावा इन्होंने पूरे भारत में 12 ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की |
यह चारों धाम आज भी विद्यमान है प्रत्येक वर्ष देश विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते हैं भारतीय प्राचीन संस्कृति धर्म परंपरा को अभिव्यक्त करते यह धाम युगो युगो तक भारत के अखंड गौरव का गुणगान करते रहेंगे |
मठ क्या होता है?
मठ एक ऐसी संस्था हैं जहां गुरु अपने शिष्य को शिक्षा देते हैं इस स्थान को पीठ भी कहा जाता है | विशेषता यहां गुरु अपने शिष्यों को धर्म ज्ञान ग्रंथों वेदों सनातन हिंदू धर्म आदि की शिक्षा देते हैं | अध्यात्मवाद के लिए प्रसिद्ध यह मठ समाज सेवा जनजागृति साहित्य आदि क्षेत्रों में काम करते हैं |
हमारे देश में जितने भी सन्यासी थे या जो अभी है| वही इनहि मठों में से किसी एक के सदस्य होते हैं|
1.
ब्रह्मा सत्य है तथा जगत मिथ्या है |
शंकराचार्य ने इसी वचन का प्रचार किया था वह सच्चे सन्यासी थे | उन्होंने अनेकों धर्म ग्रंथों की रचना की थी | मात्र 32 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया था | उन्होंने कहा था कि
2.
हे मानव ! तू स्वयं को पहचान स्वयं को
पहचानने के बाद तू ईश्वर को पहचान जाएगा
शंकराचार्य के विषय में हैरान कर देने वाले तथ्य
बौद्ध धर्म में जो स्थान धर्मगुरु दलाई लामा का है वहीं स्थान हिंदू धर्म में शंकराचार्य का है |